August 2017
Akshar Parv ( अंक 215 )
इनके रहने से भारीपन छा जाता है
एक घुटन फैलाती है अपना पंख
पंख का इन्द्रजाल बढ़ता ही जाता है
अपनी सार्थकता में मग्न
समय के बढ़ते अंतराल में
नये सर्जक शुतुरमुर्ग की दौड़ लगाते हैं
एक अमरबेल फैलती चली जाती है
अमृतस्पर्श से संजीवित
किन्तु नाभिनाल का शोधन शेष है
अनेक यानों में घूमते
सर्वक्षत्री हो गये हैं
इन्हें कौन बताए आदमी का मांस भक्ष्य नहीं
लाल अंगारों में पकते हैं
दूर-दूर तक फैलती चिरायन गंध
इन्हें कोई रोकता क्यों नहीं
रोकने की संस्कृति भाषा विहीन हो उठी है
नीला आकाश नहीं दिख रहा
आहत भाषा में पृष्ठ पोषक देखते हैं
रक्तरंजित हक पड़े हंै संज्ञाहीन
सब यही यों ही होता चला जाता है
जैसे कोई निर्झर झरता जाता हो
लेकिन वह भी कब तक
कभी कोई याचक अपने उन्नायकों से
रू-ब-रू हो वामन बन जाता है
जिन्हें पता ही नहीं
क्या होता है आदमी का खून
बस उन्हें चाहिए अपनी कूटधर्मिता का स्वाद
इसी के लिए दौड़ लगाने वाले क्या जाने
एक बूंद खून के लिए कितना पसीना बह चुका है
लेकिन जीवन क्या खून-पसीने में ही आबद्ध है
एक तिलमिलाहट-अघोष बेचैनी-शुरू हो जाती है
यक्ष प्रश्नों के बेशुमार कंटकजाल में उलझना गवारा नहीं
विश्लेषकों की नई कृतियां नत सिर खड़ी
एक रिक्त आवेग चिल्लाता है
जैसे नि:शब्द चिल्लाहट में फूटता हो कोई आर्तनाद
यह अपना ही स्वर परावर्तित हो गूंज रहा
स्वरों में स्वरों का अन्तर्संघात
आवर्तन-विवर्तन का मोहमंत्र
पहचना मुश्किल होती जा रही
संगीत का नादब्रह्म झल्लाहट में डूब रहा
बौखलहाटों की चहार दीवारी में
नई स्वप्न तरंग कहां उठ पाती है
परिग्रह का मंत्र जाप कितने भयानक रूप में खड़ा है
इसने बनाया है अपना तंत्र
जिसके हुताशन से निकलती लपट छा गई
अब और धधकाने की होड़ मची है
आग और धुआं जय-विजय की तरह खड़े
इन्हें श्रांत नहीं होना
श्लथता से भी अनभिज्ञ
हव्य को पीने वाले बढ़ते जा रहे
सम्पाती का उत्साह कहीं पड़ा कराह रहा
आवेग का संशय समाहार का रास्ता नहीं खोज पाता
मुट्ठी में पानी कैसे बंधे
विकल्पों की खोज में धंसती आंखें
सूखे फूलों से श्रृंगार में लगे हाथ थकते जा रहे
टूटते शब्द अंगारे नहीं बन रहे
राख की तरह उड़़ जाते हैं
कभी किसी अन्हड़ का उपजीव्य बन जाय
यह भी तो अनिवार्य नहीं।
वामन और विराट
वामन और विराट
दोनों का उद्भव साथ-साथ
जाग्रत और सुसुप्ति की आंख मिचौनी में
समय का भागता अंतराल
कभी पीछे नहीं देखता
एक ही जमीन जुटाती है पोषण
द्वंद्व का सिलसिला चलने लगता है
बड़ रहस्यमय है यह खेल
बीच में सृष्टि का कोई चमत्कार
बंध जाता है जीवन का कोई कालखण्ड
अपनी अखण्डता के प्रवाह से अलग
प्रवंचित पुरुषार्थ में आत्ममुग्ध
घोषित करता हुआ विराट दर्शन
चेतना का उत्कर्ष
कर जाता है उद्विग्न
कितनी घातक बन जाती है ऋतम्भरा
अपने सम्पुट अस्तित्व का वैभव
दुर्बलताओं की छाया में कराह उठता है
यह कैसा ऐश्वर्य!
हर्ष और विषाद के क्षणों का गवाह
जैसे खिलखिला रहा हो खौलते पानी में
आहत मस्तिष्क में संवेदनाओं की कुण्डलिनी
अमृत-पान को उत्कंठित तो है
पर दुखचक्रों की लीलाभूमि में कराहती हुई
विराट का वामन
और वामन का विराट
अपने प्रत्यावर्तन से जूझते हुए
लहू-लुहान होते जा रहे।