December 2018
अक्षर पर्व ( अंक 231 )
वर्तमान समय में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी घुसपैठिये पर विचार करने का और उस पर एक प्रासंगिक और अनुकूल समसामयिक टिप्पणी देने का यह उचित समय मालूम पड़ता है। आजादी के सात दशक बाद भी भारतीय समाज में एक प्रकार की जड़ मानसिकता बनी हुई है जो अपने को एक नयी सुबह के इंतजार में खड़ी तो पाती है लेकिन कुछ कर नहीं पाती। बहरहाल। यह सब देख कर आजादी के दौर को याद करते हुए हम यही कह सकते हैं कि 'वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहींÓ! आइये कहानी पर विचार करते हैं।
मेडिकल कॉलेज के डीन डॉक्टर भगवती उपाध्याय को जब राकेश ने टोकते हुए कहा- डॉक्टर साहब, हम यहाँ आरक्षण के पक्ष या विपक्ष पर चर्चा करने नहीं, दलित छात्रों की समस्याएँ लेकर आए हैं। तो भी डीन इसी बात पर अड़ा रहा कि कम योग्यतावाले जब सरकारी हस्तक्षेप से मेडिकल जैसे संस्थानों में घुसपैठ करेंगे तो हालात तो दिन-प्रतिदिन खराब होंगे ही। वास्तव में डीन डॉ. उपाध्याय की यह बात सम्पूर्ण गैर-दलित समाज की वह अवधारणा जिसमें रूढ़ प्रवृत्ति को श्रेय प्राप्त है, व्यक्त होती है। घुसपैठिये कहानी द्वारा ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित-विमर्श में एक नयी स्थिति को प्रश्न रूप में रखा है। कहानी की मूल संवेदना यह बताती है कि दलितों में सुगबुगाती पीड़ा के पीछे जितना दोष उच्च वर्ग का है उतना ही दोष उनके अपने लोगों का है । लेखक ने समस्या के पहले पक्ष की अपेक्षा दूसरे पक्ष को अधिक विमर्श योग्य बनाने हेतु कथ्य को उसी ढाँचे में व्यक्त किया है। ऐसे पक्ष पर आघात करते हुए, कहानीकार ने सामाजिक कार्यकर्ता रमेश चौधरी के वक्तव्य से दर्शाया कि आरक्षण का लाभ उठाने वाला वर्ग हर प्रकार से उसका फायदा प्राप्त कर रहा है, लेकिन अपने ही अन्य लोगों को जो अभी भी उस आरक्षण लाभ से मुख्यधारा में नहीं आ पाए हैं, को देखकर उदासीन बने रहते हैं। रमेश चौधरी कहानी में एक स्थान पर कहता है कि तुम लोग इसी तरह उदासीन बने रहे तो वह दिन दूर नहीं जब आरक्षण को ये लोग (यानी गैर-आरक्षण प्राप्त वर्ग) हजम कर जाएँगे ...बाबा साहब तो हैं नहीं ...और बाबा साहब के नुमाइन्दे बनने का जो ढोंग कर रहे हैं वे भी संसद में पहुँचते ही गीदड़ बनकर उनकी गोद में बैठ जाते हैं जो आरक्षण विरोधी हैं, और तरह-तरह की नौटंकियाँ करने में माहिर हैं । न्यायाधीशों से फैसले दिलवाएँगे कि अब मेडिकल और इंजीनियरिंग में आरक्षण से दाखिला नहीं मिलेगा। इससे प्रतिभाएँ नष्ट होती हैं... जैसे प्रतिभाएँ इनकी गुलाम हैं और सिर्फ इनके घरों में ही जन्मती हैं ...अरे इतने ही प्रतिभावान थे तो देश की यह हालत कैसे हो गई.. इस तरह के वक्तव्यों से कहानी जिस कथ्य को संवेदित करती है वह दर्शाती है कि दलित वर्ग को मिलने वाला आरक्षण लाभ जो कि उन्हें मुख्यधारा के समाज में लाने के लिए आवश्यक है पर भी कुछ आरक्षण विरोधी रुझान रखने वाले तत्त्व व्यवस्था को अपने अनुकूल चलाने और बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
घुसपैठिये कहानी का आरंभ मेडिकल कॉलेज के छात्र सुभाष सोनकर की मौत की खबर से होता है और कहानी अपने परिवेश में जिस घटना को लेकर आगे बढ़ती है वह राकेश की स्मृति में घटित होते हुए व्यक्त होती है। जब रमेश चौधरी सुभाष सोनकर और उसके कुछ अन्य साथियों के साथ राकेश से मिलने आए थे। तब उन्होंने मेडिकल कॉलेज में दलित छात्रों पर व्यवस्था और सवर्ण छात्रों द्वारा उन्हें पीडि़त करने की घटनाओं पर राकेश से मदद माँगी थी। उस समय वे सभी छात्र मेडिकल कॉलेज के वातावरण को लेकर बड़े निराश थे। जिन छात्रों ने सवर्ण छात्रों के अत्याचार सहे थे वे घबराए हुए थे क्योंकि पूरी व्यवस्था में उन दलित छात्रों को घुसपैठिये की तरह देखा जा रहा था।
व्यवस्था के साथ-साथ मीडिया जैसी संस्था भी कई रूपों में दलित विमर्श की समस्याओं को अनदेखा करती है । यह बात कहानी की आरंभिक संवेदना में व्यक्त हुई है।
जिस संवेदना को कहानी के केन्द्र में स्थापित पाया जाता है वह राकेश और उसकी पत्नी का पारिवारिक प्रसंग भी है। राकेश की पत्नी इन्दु को यह पसंद नहीं कि इन लोगों के साथ बार-बार राकेश का मिलना-मिलाना हो, क्योंकि उसके मन में अब भी वह सामाजिक कुंठा बची हुई है जो समाज के आरोपित भय की तरह उसे डराती है। इन्दु को लगता है कि वह जिस समाज में रह रही है वहाँ उसे अपने दलित होने की पहचान को छिपाना पड़ेगा, और अगर ऐसा न हो, तो वह समाज में अपनी मान मर्यादा को लेकर पहले जैसा नहीं रह पाएगी। यह उसके मन की हीनताग्रंथि ही है। जो सामाजिक भय के कारण उसके भीतर अपना स्थान बना चुकी है। हीनताग्रंथि की यह समस्या इस स्तर पर पहुँच चुकी है कि कहानी में एक स्थान पर इन्दु का वक्तव्य राकेश के प्रति इस प्रकार व्यक्त हुआ है ...तुम चाहे जितने बड़े अफसर बन जाओ, मेल-जोल इन लोगों से ही रखोगे, जिन्हें यह तमीज़ भी नहीं है कि सोफे पर बैठा कैसे जाता है... तुम्हें इनसे यारी-दोस्ती करना है तो घर से बाहर ही रखो... आस-पड़ोस में जो थोड़ी-बहुत इज्ज़त है, उसे भी क्यों खत्म करने पर तुले हो... गले में ढोल बाँधकर मत घूमो... यह जो सरनेम लगा रखा है... यही क्या कम है... कितनी बार कहा है इसे बदलकर कुछ अच्छा-सा सरनेम लगाओ... बच्चे बड़े हो रहे हैं... इन्हें कितना सहना पड़ता है । कल पिंकी की सहेली कह रही थी... रैदास तो जूते बनाता था... तुम लोग भी जूते बनाते हो... पिंकी रोते हुए घर आई थी... मेरा तो जी करता है बच्चों को लेकर कहीं चली जाऊँ..
यह हीनताग्रंथि इन्दु में समाज के भय से आई है, वह अपनी जातीय पहचान को समाज में जिस उपेक्षित दृष्टि से देखती है उसे वह अपने आपसे दूर हटाना चाहती है। अगर इस कहानी में कोई दलित द्वंद्व उभरता है तो वह इन्दु के चरित्र से ही पता चलता है। कई दलित अपनी जातीय पहचानों को सैकड़ों वर्षों की उस पीड़ा से अलग नहीं कर पा रहे हैं और इस भय से वह अपनी जातीय पहचान को ही अपने से दूर हटा देना चाहते हैं।
सामाजिक द्वंद्व की घोर समस्या जहाँ माक्र्सवादी दृष्टिकोण में एक लम्बे समय से वर्ग-संघर्ष है, वहीं वर्तमान दलित-विमर्श में इन्दु के स्वभाव और उसके व्यवहार से लगता है कि वर्ण-संघर्ष ही आज दलित साहित्य या दलित विमर्श की मूल अवधारणा में छिपा हुआ है।
इस वर्ण-संघर्ष में इन्दु तो बच निकलने की अपेक्षाओं से राकेश पर दबाव बनाती है। लेकिन, क्योंकि राकेश भी दलित वर्ग की पीड़ा और उपेक्षा को भोग चुका है इसलिए वह चाहकर भी अपने आपको इस वर्ण-संघर्ष से बाहर नहीं ले जाना चाहता। कहानी के अंत में यह संवेदना मुखरित भी होती है- राकेश अपने भीतर उठने वाली बेचैनी को जितना दबाने की कोशिश कर रहा था, वह उतनी ही तीव्रता से बढ़ रही थी । ...सोनकर की अंतिम यात्रा में शामिल ही नहीं होगा, उसे कन्धा भी देगा।
कहानी में एक चरित्र जो सक्रिय भूमिका में प्रतीत होता है और सदैव मानसिक रूप से कहानी में बना रहता है, वह है रमेश चौधरी। सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कहानीकार ने उसका परिचय दिया है। यह दर्शाते हुए कि रमेश चौधरी अपने आपको उस सामाजिक दायित्व से जुड़ा हुआ महसूस करता है, जिसमें उसे अपने समाज में व्याप्त रूढ़ मानसिकता को दूर करना है। वह अपने आपको उस दायित्व के लिए प्रतिबद्ध बनाए रखता है।
कहानी में जिन कारणों से यह समस्या दलित-विमर्श में अपना स्थान पाती है वह सवर्ण छात्रों, मेडिकल कॉलेज व्यवस्था, प्रशासन और मीडिया सब अपने आपको दलितों के प्रति उस स्तर पर उत्तरदायित्वपूर्ण नहीं मानते कि उनकी समस्याओं का समाधान हो और सुभाष सोनकर की या अन्य किसी दलित की जीवन पीड़ा या कहें सामाजिक कष्ट को दूर किया जाए । यही इस कहानी के अंत में पाठक को सोचने के लिए मजबूर करती हैं।
आधार संदर्भ
और टिप्पणी
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी 'घुसपैठिये', 'हंस' पत्रिका के मई 2000 अंक में प्रथम बार प्रकाशित, कहानी संग्रह 'घुसपैठिये', ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, पहला संस्करण 2003 में संकलित, पृष्ठ संख्या 13 से 20 तक
पुन: पाठ का शीर्षक मशहूर उर्दू शायर फैज़ अहमद 'फैज़' की नज़्म 'सुबह-ए-आज़ादी' से लिया गया है ।