December 2017
अक्षर पर्व DECEMBER 2017 (अकं 219) की रचनायें ( अंक 219 )
हिन्दी में कथा साहित्य अकूत संपदा से परिपूर्ण है। कहानी, निबंध, रिपोर्ताज, जीवनी, संस्मरण, नाटक आदि विविध विधाओं के माध्यम से कितने ही रचनाकारों ने हिन्दी को साहित्य-संपदा से आप्लावित कर देने का कार्य किया है। इन्हीं में से एक अनन्य विधा नाटक भी है। नाटक को आधुनिक गद्यकाल के प्रारंभ में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ही विशिष्ट पहचान दिलाने का कार्य किया।
प्राचीन हिन्दी नाट्य साहित्य में कालिदास से लेकर आधुनिक काल के द्वार पर आकर हम भारतेंदु हरिश्चंद्र से साक्षात्कार करते हैं और उनके कुछ बाद के वर्षों तक हरिकृष्ण प्रेमी, वृंदावनलाल वर्मा, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल, रामकुमार वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि का भी नाम ले सकते हैं, जिन्होंने नाटक को अपना विशेष योगदान दिया। इन्हीं गिने-चुने नामों में एक नाम जगदीशचंद्र माथुर का भी आता है। इन्होंने अपनी कई नाट्य रचनाओं से हिन्दी नाट्य साहित्य को समृद्ध करने का कार्य किया।
यशस्वी लेखक, नाटककार एवं संस्कृतिकर्मी जगदीशचंद्र माथुर का ये जन्मशती वर्ष है। इनके जीवन की सबसे बड़ी बात ये है कि इनके जीवन का अधिकांश सरकारी सेवा में बीता। इसके बावजूद ये हिन्दी नाट्य साहित्य के लिए नियमित रूप से अपना समय निकालते रहे। फलत: आज भी इन्हें एक सरकारी सेवक से अधिक एक साहित्यकार के रूप में जाना जाता है।
एक साहित्यकार के रूप में इन्होंने कई लेखों, नाटकों आदि की रचना की। लेकिन नाटकों के लिए इनके उल्लेखनीय योगदान के कारण हिन्दी साहित्य में इनका नाम एक नाटककार के रूप में अधिक शुमार है।
प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश्वर उनके बारे में कहते हैं कि जगदीशचंद्र माथुर एक साथ ही इंडियन सिविल सर्विस के वरिष्ठ प्रशासक, साहित्यकार और संस्कृतिपुरुष थे।
16 जुलाई 1917 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में स्थित एक छोटे से गाँव खुर्जा में जन्मे जगदीशचंद्र माथुर ने सरकारी सेवा में रहते हुए एक ओर जहाँ बिहार के शिक्षा सचिव के पद को सुशोभित किया, वहीं 1955 से 1962 तक भारत सरकार के अधीन आकाशवाणी के महासंचालक के रूप में भी रहे। 1963 से 1964 तक तिरहुत (उत्तर बिहार) के कमिश्नर रहे, इसी दौरान वे अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में विजिटिंग फेलो के रूप में नियुक्त हो कर अमेरिका चले गए। इसके अलावा वे दिसंबर 1971 से कई वर्षों तक भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार भी रहे। और इसी वर्ष वे बैंकाक में भी प्रतिनियोजित किए गए।
सरकारी सेवक के रूप में भी इन्होंने अपने विशिष्टतम प्रयोगों से सब को चौंका दिया। ऑल इंडिया रेडियो को इन्होंने आकाशवाणी का नाम दे दिया और भारत में टीवी को दूरदर्शन का नाम दे दिया। मजे की बात ये हो गई कि कालांतर में आकाशवाणी और दूरदर्शन नाम ही भारत सरकार के द्वारा एवं तमाम भारतीयों के द्वारा स्थायी रूप से स्वीकार कर लिया गया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि हिन्दी नाट्य साहित्य के साथ-साथ उन्होंने आकाशवाणी एवं दूरदर्शन को भी अपना विशिष्ट योगदान दिया।
जगदीशचंद्र माथुर का हिन्दी नाट्य प्रेम उनके विद्यालयीय जीवन से ही अपने चरम पर रहा। इसी कारण उन्होंने 1930 के आसपास जहाँ तीन छोटे-छोटे नाटकों की रचना की, वहीं कालांतर में उनके नाटक चाँद, रूपाभ, भारत, माधुरी, सरस्वती जैसी उस समय की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे।
हिन्दी नाटकों को उन्होंने अपना योगदान अपनी कलम चला कर भी दिया और इसके साथ ही कई नाटकों को कई मंचों पर अभिनीत कर भी दिया। इस कारण से हम कह सकते हैं कि जगदीशचंद्र माथुर ने हिन्दी नाटक को अपना योगदान सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों ही माध्यम से दिया।
श्री माथुर के नाटकों में किसी खास का नाम नहीं लिया जा सकता है। उनके सारे नाटक अपनी बनावट, बुनावट एवं कसावट की दृष्टि से अप्रतिम है। ओ मेरे सपने, कोणार्क, पहला राजा, रीढ़ की हड्डी, आदि कोई भी नाम लिया जाए, उनके सभी नाटक रंगमंच की दृष्टि से तो सफल हैं ही, नाटक के विभिन्न तत्त्वों, कथावस्तु, देश-काल, पात्र-योजना, कथोपकथन एवं उद्देश्य की दृष्टि से भी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।
1946 में प्रकाशित एकांकी संग्रह भोर का तारा में स्वदेश प्रेम से परिपूरित पांच एकांकी संकलित हैं। भोर का तारा, कलिंग विजय, मकड़ी का जाला, रीढ़ की हड्डी एवं विजय की बेला। इस संकलन में युद्ध के वर्णन को केंद्र में रखकर कलिंग विजय एवं विजय की बेला की रचना की गई है। जिसमें से 1950 में प्रकाशित विजय की बेला में वीर कुंवर को केंद्र में रखा गया है। जबकि 1950 में प्रकाशित दूसरे एकांकी संग्रह ओ मेरे सपने में भी कुल पाँच एकांकी हैं-ओ मेरे सपने, घोंसले, कबूतरखाना, खिड़की की राह आदि।
जगदीशचंद्र माथुर एक प्रयोगधर्मी नाटककार थे। इनकी प्रयोगधर्मिता का पता इस बात से भी चलता है कि 1951 में प्रकाशित इनके नाटक कोणार्क में एक भी नारी पात्र नहीं है, फिर भी यह एक सफलतम मंचीय नाटक सिद्ध हुआ। इतिहास, संस्कृति एवं समकालीनता से युक्त इस सर्वोत्तम नाटक में संस्कृति की अनुभूति को समसामयिकता के परिप्रेक्ष्य में प्रामाणिकता प्रदान की गई है।
1959 में प्रकाशित इनके नाटक संग्रह शारदीया के सारे नाटकों में समस्याओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रख कर देखने का आभास है, तो 1970 में प्रकाशित नाटक पहला राजा में व्यवस्था और प्रजाहित के आपसी रिश्तों को मानवीय दृष्टि से व्याख्यायित करने का प्रयास दिखाई देता है। इस नाटक में एक पौराणिक आख्यान के माध्यम से प्रकृति एवं मनुष्य के बीच के संबंधों की महत्ता को बड़े ही सलीके से रेखांकित करने का कार्य किया गया है। बताया गया है कि कैसे मुनियों के द्वारा पृथु को पहला राजा घोषित किया गया और उसके सत्ता क्षेत्र यानी धरती को उसके नाम के कारण से ही पृथ्वी का नाम मिल सका।
1973 में प्रकाशित इनके नाटक दशरथ नन्दन में धर्म के प्रति समर्पण की भावानुभूति है। वहीं,रीढ़ की हड्डी नाटक में जगदीशचंद्र माथुर ने लिंग आधारित भेदभाव वाली मानसिकता से ग्रस्त हमारे समाज की विद्रूपता का पर्दाफाश करने का कार्य किया गया है। रघुकुल रीति इनका अंतिम नाटक हैं, जो उनकी मृत्युपरांत 1985 में प्रकाशित हो सका। बंदी एवं मेरी बाँसुरी भी इनके उल्लेखनीय एकांकी रहे हैं। इन एकांकियों एवं नाटकों के अलावा श्री माथुर ने दो कठपुतली नाटक वीर कुंवर सिंह की टेक एवं गगन सवारी का भी प्रणयन किया।
इसके साथ ही जगदीशचंद्र माथुर ने 1968 में एक समीक्षा पुस्तक पंचशील नाट्य का भी सृजन किया। इस कृति के माध्यम से उन्होंने लोकनाट्य की परंपरा और उसके सामथ्र्य का विवेचन तो किया ही, नाटक की मूल दृष्टि को भी विवेचित करने का कार्य किया। एकांकियों एवं नाटकों का लेखन करने के अलावा श्री माथुर ने प्राचीन भाषा नाटक संग्रह का संपादन भी किया।
1962 में प्रकाशित दस तस्वीरें एवं 1972 में प्रकाशित जिन्होंने जीना जाना श्री माथुर के दो ऐसे जीवनी संकलन हैं, जिनमें उन्होंने समाज को दशा एवं दिशा देने में अपना अभूतपूर्व योगदान देनेवाले व्यक्तित्वों की जीवनियों को संकलित करने का कार्य किया है। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व का निधन हृदयगति रुक जाने से 14 मई 1978 को राममनोहर लोहिया अस्पताल में हो गया। और इस तरह नाटकों के क्षेत्र में रचनात्मकता एवं प्रयोगधर्मिता की निर्बाध गति भी रुक सी गई। हालाँकि, बाद के कुछेक नाटककारों ने फिर से उनके कार्यों को आगे बढ़ाने का कार्य किया है किंतु उनके योगदान को विस्मृत नहींकिया जा सकता।
समग्र रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दी नाट्य साहित्य के लिए अपना अप्रतिम योगदान देने में जिन लेखकों ने अपनी महती भूमिका अदा की है, उनमें जगदीशचंद्र माथुर का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है।