July 2017
Akshar Parv ( अंक 214 )
एम्बुलेंस बुलाने की नाकाम कोशिश से मैं लगभग विचलित हो उठा। सुनसान सड़क पे मेरी चहलकदमी एक तनाव से भीग उठी, फिर भी, मेरी चाहत थी कि किसी तरह भी जख्मी व्यक्ति अस्पताल पहुंचे।
''आजकल, पैदल राहगीरों के लिए भी सड़कें सुरक्षित नहीं है, भले ही, वह सड़के किनारे-किनारे ही चलता हो।''घबराया-सा मैं कहीं सोच में डूबा था।
मगर हकीकत यह है कि अस्पताल यहां से दूरी पर था, इत्तफाकन: सड़क पर सामने से प्रत्यक्षत: एक जीप दिखी तो फुर्ती से मैंने हाथ हिलाया, वाहन की चाल गति धीमी हो चली, मैं अपना मंतव्य मंशा स्पष्ट करता, उससे पहले ही वह कह पड़ा, ''मैं खुद बड़ी जल्दी में हूं... अस्पताल में मेरे पिताजी का इलाज...''
''अरे, भई!''बीच में ही टोकते-टोकते मैंने आधे-अधूरे सच को उगलना चाहा, ''हमें भी तो अस्पताल को जाना है... आप देख रहे हैं हालत को...''
''हां-हां बाबूजी!'' तेजी से उसने कहा, ''किराया लगेगा...''
''ठीक है, ले लेना... किन्तु, इनको अंदर तो...'' रुक-रुककर मैंने संक्षेप में अपना मकसद प्रकट किया, ''आप चलो... मैं आपके पीछे-पीछे आ रहा हूं... हां, भईया! जरा गाड़ी स्पीड से चलाना ताकि इनकी जान बच जाएं...''
पलक झपकते ही वह गाड़ी चालक आंखों से ओझल हो चुकी थी, और तभी मैंने एक गहरा चैन भीतर को महसूसा, ''खैर, अभी तो मेरी जान बच गई.. वस्तुत: मेरा सच कुछ अलहदा ही था जो कि मेरी बाइक से उस राहगीर का एक्सीडेंट हुआ था... वह अब अस्पताल में होगा और मैं अपने घर! गाड़ी स्टार्ट करते हुए भीतरी धूर्तता के साथ मैं खुद को काफी मह$फूज अनुभव करने लगा था।