January 2017
अक्षर पर्व ( अंक 208 )
मोहन कुमार नागर
बेतवा अस्पताल,
डॉ. जगदीश मार्किट
गंज बसोदा जिला- विदिशा
मो. 9893686175
हुक्काम
(1)
सांप भी कम अज कम
साल एक का वक्त तो लेता है !
गजब हैं आप साहेब
हर नई सुबह
पिछली केंचुली उतर देते हैं
(2 )
सृष्टि के आरम्भ में भूखे ही भूखे थे
भूखों की ही ये दुनिया थी !
फिर भूखों से अधपेटे निकले
अधपेटों से अधपेटे मिले
अधपेटों ने समाज बनाया !
सबसे आखिर में आए भरपेटे
आते ही तंत्र फूंककर
बाँट दी उन्होंने दुनिया
धर्म और जात के दड़बों में !
अब जन तंत्र का गुलाम हुआ
हर भरपेटा हुक्काम हुआ।
(3)
हुक्काम ने तोप का मुहाना खोला
गोले की जगह भूख भरी
हाय हाय करते जन पर दागी
और डकार मारते सो गया !
कल वो भूख से मरी जनता के लिए
अखंड राम धुन गायेगा
और हत्याओं के इल्जामों से भी
साफ बरी हो जाएगा।
(4)
जब जब न्याय के एक पलड़े पर
मजलूमों की लाशें चढ़ती हैं
और पलड़ा बोझ से झुकते जाता है
हुक्काम दुसरे पलड़े पर
अपना एक आंसू चढ़ा देता है !
देखते ही देखते फिर
दूसरा पलड़ा झुकने लगता है
झुकते ही जाता है
यहाँ तक कि इतना नीचे
कि फिर पहले पर
और लाशों तक के लिए
संभावना निकल आती है
(5 )
हुक्काम मुस्कुरा रहा है
सहम जाइए दोस्तों
कोई मारा जा सकता है !
हुक्काम रो रहा है
चलो मर्सिया पढ़ें दोस्तों
वो कोई
अब मारा जा चुका
(6 )
बाम्बी उजड़ गई
बाम्बी उजाड़ दी
बाम्बी हाथी ने कुचलकर उजाड़ दी !
बदहवास भागती
मुंह से मुंह मिलाकर रो रही हैं चींटियाँ
अपने बचे खुचे बच्चे, रसद पीठ पर
ढो रही हैं चींटियाँ
रो रही हैं चींटियाँ !
पर क्या केवल रो रही हैं चींटियाँ?
जरा ध्यान से देखो
हाथी की सूंड का पता
खोज रही हैं चींटियाँ
(7)
हुक्काम को
अब जनसंघर्ष का कोई भय नहीं
न तख्तापलट की आशंका !
वो जानता है
कि हाथों में पत्थर लिए
चार दिशाओं से निकल भी आये लोग
तो ज्यादा से ज्यादा एक चौराहे तक ही पहुंचेंगे
और रण का बिगुल मैं फूंकूंगा
पहला पत्थर मैं मारूंगा के झगड़े में
एक दूसरे का ही सर फोडक़र
दस दिशाओं में लौट जायेंगे
(8)
अँधेरी खोह से निकलकर
नींव के पत्थरों ने कहा
बहुत हुआ
अब हम शिखर पर चढ़ेंगे
इतनी सी बस बात थी
राजमहल थर्रा उठे