September 2015
अक्षर पर्व ( अंक 192 )
रजनीकान्त पाण्डेय 'व्याकुल'
बेने, अलोड, वेस्ट शियाड
अरुणाचल प्रदेश-791001
मो. 9436631077, 9436092375
मैं कब तक चुप रहूं
न करूं बातें
साध लूं मौन
आंखें बंद कर लूं
अनदेखा कर दूं अपने
आसपास की उपस्थिति !
मौन साधने और
आंखें बंद करने के बाद भी तो
खुले रह जाते हैं मन के दरीचे,
विचारों के बवंडर में
धूल सी उड़ती सारी कोशिशें
सब कुछ भूल जाने की,
आंखों में घुसकर
चुभने लगती हैं।
बाहर सब कुछ बंद होने के बाद भी
खुली रह जाती है खिड़की
जिसके पार फैला अनंत विस्तार
भावों का
दर्द और पीड़ा को बांध
जागता रहता है
अपनी चीखों में दबा
यातना भरी रातों की खामोशी में।
बंद आंखों के पीछे
फलक पर
उभरती है अनजान आदमकद
छाया
जिसके सामने बौना हो जाता है
सब कुछ- जो बाह्य है
जिसे छुपाना चाहते हैं हम
इस दुनिया से।
पर कहां छुप पाती हैं
वे सारी चीजें, भाव-विचार
जो दर्द की दीवार से टकराकर
चीखते सन्नाटे को
गीला कर
बह निकलते हैं आंखों से।
धूप के घोड़े
धूप के घोड़े पर बैठ
मैंने पार कर ली
कई घाटियां,
जंगल, पहाड़ और
विस्तृत मैदान
घुटने तक कीचड़ में धंसी
मिली औरतें
धान के बिरवे रोपती
चुप, खामोश अपने काम में लीन।
मैंने पूछा औरत से आगे का रास्ता-
पर जवाब दिया नदी ने-
''उधर, उस जंगल में
चट्टानों की पगड़ी बांधे
पहाड़ों से पूछो,
रास्ते बनाने पड़ते हैं अपने आप
घोड़े से उतरकर पैदल चलो
रास्ते खुद-ब-खुद खुल जाएंगे
मैं व्यस्त हूं अभी
धरती सींचने में।ÓÓ
मैंने फिर पूछा- रास्ता पहाड़ों से
औरत ने कमर सीधी करते हुए कहा
''रास्ते केवल धूप में नहीं
बल्कि अंधेरों में ही मिल जाते हैं
पर उसके लिए घोड़ों की नहीं
जरूरत होती है दो पैरों की
जो अपने निशान छाप देते हैं
चट्टानों की छाती पर।ÓÓ