September 2015
अक्षर पर्व ( अंक 192 )
ऋषि गजपाल
एच-48, डी-मरौदा सेक्टर
भिलाई नगर-490006 (छ.ग.)
गन्नू मामा लगातार ही रोते जा रहे थे। पचास-पचपन की उम्र होगी लेकिन तंदुरुस्त व शौकीन मामा पैंतीस-चालीस से ज्यादा के नहीं लगते थे। थोड़ी सी तोंद निकली होने के बावजूद मध्यम कद के होने के कारण युवाओं में सम जाते थे। उनका चुटकी भरा लहजा और सदैव सहयोगात्मक रवैया लोगों के बीच उन्हें लोकप्रिय बनाता था। उस दिन भी दो गुटों के बीच झगड़े में बीच बचाव सुलह के लिए एकदम से कूद पड़े थे। आखिर घर की शादी थी, लेकिन उसी भीड़ से एक युवक का झन्नाटेदार थप्पड़ खाकर उनका सिर घूम गया। जब पता चला कि थप्पड़ मारने वाला और कोई नहीं बल्कि घर का मेहमान ही था, और रिश्ते में भतीजा लगता है तो मारे अपमान के जार-जार रोते रहे। क्रोध की सीमा न रही। गुस्से में बम की तरह फट पड़े। शरीर पत्ते की तरह कांपने लगा। पत्नी घबरा गई कि कहीं रक्तचाप बेकाबू न हो जाए। वह जानती थी कि प्राय: खुशमिजाज रहने वाले मामा का क्रोध बड़ा भयंकर होता है। जुबान क्रोध से लडख़ड़ाने लगती। गले की नसें फूल जाती। पसीना आने लगता। कोई पास फटकने की हिम्मत नहीं करता, लेकिन उस समय बात कुछ और थी। किसे गरियाये, किसे करियाये। किस पर हाथ उठाएं। अपना ही दांव, अपना ही घाव। स्वाभिमानी किस्म के गन्नू मामा को लोग घमंडी भी समझ लेते थे। क्योंकि अभिमान और घमंड के बीच संयम और समझ का झीना आवरण ही तो होता है। फलों के थोक व्यवसायी मामा, न मिलावट पसंद करते थे और न मुनाफाखोरी। फक़त अपनी मजदूरी निकल जाए। कोई संतान थी नहीं कि भविष्य सुनहरा पिंजरा बुनने लगे। कोई इस पर भी मोल-तोल करने लगता तो झुंझलाकर उसे हड़क देते- ''पटता है तो करो सौदा, वरना दुकान है चौदह।ÓÓ
रात के ग्यारह बजे थे। रात्रि-भोज का कार्यक्रम लगभग अंतिम दौर में था। डी.जे. की कानफोड़ू धुन पर डांस करने वाले टपोरी युवकों की, घरेलू युवकों से किसी बात पर बहस हुई। झूमा-झटकी हुई और बलवा होने की स्थिति आ गई। एक-दूसरे पर झुंड के झुंड, गुत्थम-गुत्था होते हुए प्लेटें-गिलास, कुर्सी, मेज गिराते लात-घूसें चलाने लगे। गालियों का फौवारा छूटने लगा। एक-दो के माथे फूटे और खून से कपड़े रंगने लगे। एक का हाथ बुरी तरह कुचला और दर्जनों के कपड़े फट गए। शांतिप्रिय भोजन जीम रहे प्राणियों को बिल्कुल समझ नहीं आया कि माजरा क्या था। कानाफूसी होने लगी। कुछ बातों से वाकया स्पष्ट होने लगा था।
जिस लड़के की शादी की पार्टी थी, वह रिश्ते में गन्नू मामा का भांजा था। उनके आधा दर्जन भांजे तीन बहनों से थे। एक कारण मामा कहलाने की लोकप्रियता का यह भी रहा। दूसरा, उनकी कोई संतान नहीं थी, तो बहुत लोग दबी जुबान से 'मामूÓ कहने लगे। जो कालान्तर में खुले तौर पर मामा कहे जाने लगे। चाहे वो रिश्ते में कोई भी लगे और उम्र में कितना भी छोटा-बड़ा हो। लेकिन एक बात से सभी सहमत कि मुसीबत पडऩे पर आगे आना और कोई न कोई सुविधाजनक हल निकाल कर पीडि़त को राहत पहुंचाना उनका शगल था, कमजोरी थी। यहां भी शादी के तमाम कार्यकलापों में मामा व्यस्त थे। मामी तो यहां सप्ताह भर से टिकी हुई थी और रसोई का पर्याप्त काम संभाले हुए थी। बाहरी कार्यों में गन्नू मामा की भागदौड़ प्रमुख थी। मेहमान-नवाजी में मामा की अहमियत देखते ही बनती थी। इस दुखद घटना के पीछे का मूल कारण, जो सामने आ रहा था वो शहरी संस्कृति का एक दोगलापन था।
पार्टी में कानफोड़ू दिल हिला देने वाली तीव्रता से डी.जे. डांस पार्टी का आयोजन रखा गया। जिसमें शहर के कुछ टपोरी लड़के हकला-हकलाकर डांस कर रहे थे। ये लड़के शादी कर रहे भांजे के मित्र थे। जबकि घर के मेहमान युवक उस डांस पर अपना अधिकार समझ कर थिरक रहे थे और उसमें कुछ मेहमान व घरेलू लड़कियां भी शामिल हो गई। डांस के दौरान स्पष्ट रूप से फ्लोर पर दो हिस्से दिख रहे थे। दायें तरफ शहरी लड़कों का झुंड और बांयी तरफ घर के मेहमान युवक-युवती, जिसमें कुछ तो गांव से थे। डांस करते-करते शहरी युवकों का मन मचल गया, जो कुछ नशे में भी थे और एक कदम आगे बढ़कर डांस कर रही एक लड़की से छेड़छाड़ कर बैठे। इस हरकत को ग्रामीण मेहमान युवकों ने अपने मौलिक अधिकार व सत्ता का हनन समझा। बात बढ़ गई और गाली-गलौज से मारपीट होते हुए बलवा होने की स्थिति तक पहुंच गई। ऐसी गंभीर स्थिति देखते हुए गन्नू मामा अपने आपको रोक नहीं पाए और बीच बचाव के लिए कूद पड़े। वैसे गन्नू मामा डी.जे. की कानफोड़ू आवाज को मद्धिम करने के लिए दो-तीन बार ऑपरेटर से गुजारिश कर चुके थे। लेकिन लड़के बार-बार अपने मुताबिक आवाज बढ़वा लेते थे।
इस मारपीट की घटना के दौरान किसी ने पुलिस थाने में सूचना भी दी होगी। तभी आधे घंटे बाद दो हवलदार आकर पूछताछ करने लगे। दो गुटों में बंटे लोग ज्यादा कुछ स्पष्टीकरण नहीं दे पा रहे थे। उन्होंने रोते हुए गन्नू मामा को पूछना चाहा तो सिरे से उखड़ गए और गाली देते हुए सब छोड़-छाड़कर अपने घर चल दिए। मामी भी सहमी-सहमी पीछे-पीछे घर पहुंची। मामा करवट बदल-बदलकर रातभर आंखें मूंद सोये रहे। मामी भी जानती थी कि जगे हुए हैं लेकिन कुछ पूछना-जानना उपयुक्त नहीं लगा। बहुत दिनों बाद वो रात ऐसी गुजरी थी, जब मामा-मामी बिस्तर पर सारी रात बिना चुहलबाजी और बिना वार्तालाप के गुजार दिये। मामी का यह बहुत असहनीय वक्त गुजरा। कब आंख लगी, पता ही नहीं चला। दिन भर की थकी मांदी जो थी।
कॉलबेल बजने की आवाज से मामा की नींद पहले खुली, लेकिन खुद न उठकर उन्होंने मामी को जगाया। मामी भी अलसाई हुई बेमन से दरवाजा खोली तो भौंचक रह गई। न कुछ बोला जा रहा था। दो मिनट का सन्नाटा मामा से सहा नहीं गया और उठकर बैठक रूम में आ गये। क्योंकि सप्ताह भर के लिए दूध वाले को नहीं आना था और अखबार वाला दरवाजे के नीचे से सरकाकर चला जाता है।
सुबह-सुबह किसी का दस्तक देना अप्रत्याशित तो था लेकिन मामी को भेजकर मामा का मन भी अशांत था। बेमन से पैर में जैसे-तैसे हवाई चप्पल अटकाकर बैठक में आए तो सामने सोफे में बैठे युवक को देखकर रातभर की जागी लाल आंखें भभूका हो गई। अपने घर में उसी युवक को बैठे देखकर शरीर क्रोध से ऐंठने लगा था। जिसने बीती रात पार्टी में उन पर थप्पड़ जड़ दिया था। लेकिन क्षण भर में ही वह युवक उठा और मामा के दोनों पांव पकड़ लिए। सुबकता हुआ वह युवक क्षमा याचना करने लगा। मामा ने असहज होकर मामी की तरफ देखा तो वह भी असहज थी, लेकिन आत्मग्लानि से गलते-ढलते युवक को देख मन पसीजने लगा।
मामी ने मामा के कंधे पर अंतत: हाथ रख दिया तो मामा ने भी दोनों हाथों से युवक को उठाकर क्षमादान करने का संकेत दिया। आमने-सामने सोफे पर बैठे मामा और युवक नि:शब्द बैठे रहे। नजरें नहीं मिल रही थी। माहौल भी निर्वात की स्थिति से हौले-हौले सामान्य होने लगा, तब तक मामी चाय के तीन प्याला ले आईं और सोफे में मामा के एकदम नजदीक बैठकर मुस्कुराने लगी।