April 2015
अक्षरपर्व ( अंक 187 )
बहुप्रतीक्षित जनवरी 2015 का अंक मिला। लगा, किसी मित्र से बहुत दिनों बाद भेंट हुई हो। सर्वमित्राजी ने गीता को राष्ट्रीय दर्जा दिये जाने के बारे में एकदम सही लिखा है। जब देश तथाकथित सेक्युलरों की पोल से परिचित हो चुका है तो फिर अंध हिन्दू लोगों के शरीर पर मांस आना स्वाभाविक ही है। हिंदूवादी जो ज़हर उगल रहे हैं वह उनकी विक्षिप्त मानसिकता दर्शाता है। जो काम पिछले कल तक बुद्धिजीवी का मुखौटा ओढऩे वाले करते रहे थे वही काम आज ये सरफिरे हिंदूवादी कर रहे हैं। यदि गीता को राष्ट्रीय दर्जा दिया जाए तो कर्मकांडी पंडे भूखों मर जाएंगे। गीता कहती है कि आत्मा अजर अमर है। उसे गर्मी सर्दी भूख प्यास नहीं लगती। फिर भी हम सर्वपित्री अमावस्या को पंडों को कूरियर मान कर अपने पुरखों को पकवान भेजते हैं। उनके लिए छाता, जूते बिस्तर, गरम कपड़े भेजते हैं।
प्रभाकर चौबे का व्यंग्य भ्रष्टाचार की हेल्प लाइन सटीक है। इन दिनों व्यंग्य के नाम पर जो ठिठोली लिखी जा रही है यह रचना उनके लिए सबक़ है। कहानियाँ भी रोचक हैं। ललितजी की प्रस्तावना मलयजी को दी गई सच्ची श्रद्धा है।
दिलीप गुप्ते,इंदौर